Thursday, December 30, 2021

ध्यान में बैठने कि पूर्व तैयारी - Dhyan mein baithne ki purav taiyari - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush

ध्यान में बैठने कि पूर्व तैयारी 
Dhyan mein baithne ki purav taiyari 

ध्यान में बैठने के पूर्व उसके योग्य मनोभावना बनानी चाहिये ! उसके साधन है - 

१. सबसे प्रथम बैठने के समय आचमन करें, आँखों पर ठंडे पानी के छींटे दे, गर्दन था मुँह पर ठंडे हाथ फेरें ! इससे  मनोवृत्तियां शान्त होती है और चित्त स्थिर होता है !


२. बैठने का जो आसान हो तथा ग्रन्थ व मूर्ति रखने की जो चौकी हो, वह केवल उसी काम के लिये हो, उनको और किसी काम में न लाया जाये |


३. हो सके तो ध्यान का कमरा भी अलग ही नियत हो ! उसमे वीतराग पुरुषों के चित्र लगे हो, जिन्हें देखने से हमारी मनोभावना वैसी ही बन जाये !


४. ध्यान का समय नियत हो ! किसी भी कारण उसको आगे-पीछे न किया जाये ! ऋतू परिवर्तन व अपनी सुविधानुसार उसको बदल सकते है, पर जो एक बार नियत किया जाये, उसको नहीं बदला जाये ! यदि कोई प्रिय मित्र अथवा निकट का सम्बन्धी भी उस समय मिलने आये, तो उनको नम्रता से कह दो कि यह हमारे ध्यान का समय है ! किसी और समय पर उनको आने को कह दो पर ध्यान का समय न टालो ! इस नियम कि अवहेलना करने से मनोभावना शिथिल पड़ जाती है और सफलता दूर जा पड़ती है ध्यान में नागा भी कभी नहीं हो !

ध्यान में बैठने कि पूर्व तैयारी  Dhyan mein baithne ki purav taiyari

ध्यान में बैठने कि पूर्व तैयारी 
Dhyan mein baithne ki purav taiyari 



५. ध्यान में बैठने के पूर्व देवता को उसका नाम लेकर आव्हान करो और नमस्कार करके उसका पूजन करो और ध्यान में यह भावना बनाये रखो कि मेरा देवता मेरे सम्मुख उपस्थित है !


६. ध्यान में जब बैठो तो अनुभव करो कि प्रभु कि कृपा मुझ पर अवतरित हो रही है ! ऐसा करने से बहुत लाभ होता है !


Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush
 ध्यान में बैठने कि पूर्व तैयारी - Dhyan mein baithne ki purav taiyari


साधना-सत्संग होशियारपुर 

दिनांक २५-१२-१९४०

Wednesday, December 29, 2021

स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush

स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti 

अजपा जाप वह है जिसमे वाणी से जाप न किया जाये, किन्तु जप हो रहा हो ! जब ऐसा हो तो अर्थ यह है कि आत्मा बोल रहा है ! आत्मा में बोलने की शक्ति है ! देह में कैद होने पर आत्मा इन्द्रियों  द्वारा विषय ग्रहण करता है और स्थूल अंगो में तरंगे पैदा करता है और जिव्हा इत्यादि से शब्द आदि उच्चारण होता है ! पर देह से पृथक होकर आत्मा सूक्ष्म प्रकृति में संकल्प द्वारा क्रिया उत्पन्न करता है ! पतंजलि महर्षि का वाक्य है कि आत्मा अपने संकल्प द्वारा चित्र पैदा कर लेता है ! दिल, फेफड़े इत्यादि स्वभाव से है, संकल्प से नहीं ! ऐसे ही आत्मिक इच्छा स्वभाव से है, संकल्प से नहीं ! यह बात ठीक नहीं है कि हम केवल बुद्धि और इन्द्रियों से ही काम ले सकते है ! हम इनसे भी परे जा सकते है ! बार बार आत्मा का उद्दबोधन करना चाहिये ! 

स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush
स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush


मैं सत, नित्य, शुद्ध, चैतन्य, शक्तिमय आत्मा हूँ ! ऐसा बार बार चिंतन करना चाहिये ! इससे आत्मा प्रबुद्ध और जाग्रत होता है  और स्वरुप में चमक उठता है ! 

Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush

स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush

 स्वात्म-प्रतीति


अपने आप की प्रतीति होने को 'स्वात्म-प्रतीति' कहते है ! अपने अस्तित्व को ऊँचा करना साधना में लाभदायक है ! आत्मा को नीचा नहीं करना चाहिये | यह उसका अपमान है और इससे आत्मा दब जाता है ! यदि पहले सफलता न हो, तो अपने आपको दुर्बल नहीं समझना चाहिये ! मनु महाराज कहते है की अन्त समय तक सफलता की आशा करते रहना चाहिये ! आत्मा के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास होना चाहिये ! विश्वास और ढृढ़ धारणा से ही आत्मा अभिव्यक्त होता है ! आत्मा की अभिव्यक्ति ज्ञाता और ज्ञेय भाव से नहीं होती, अपितु ऐसी प्रतीति होती है की मैं हूँ ! यह अभिव्यक्ति ऐसे भी होती है, जैसे मैं आकाश में हूँ, मेरी देह नहीं है, वह मेरी देह पड़ी है, मैं देह से भिन्न हूँ, मेरे हाथ-पाँव बड़े बोझल हो गये है, मेरा शरीर सुन्न हो रहा है, मेरा शरीर छोटा सा हो गया है, मेरा मन बड़ा विशाल है, इत्यादि, इत्यादि !



स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush
 स्वात्म-प्रतीति - Swaatam Pratiti - Shree Swami Satyanand ji Maharaj ji - Pravachan Piyush


यह आवश्यक नहीं कि सब साधकों को सब प्रकार कि प्रतीति हो ! किसी को किसी प्रकार कि अभिव्यक्ति होती है, किसी को किसी प्रकार की ! यदि किसी को इनमें से किसी प्रकार की भी प्रतीति न हो और उसको एकाग्रता हो जाती है, तो उस को यह नहीं समझना चाहिये की मुझ में कोई कमी है या मेरी उन्नति नहीं हो रही है ! उसका आत्मा भी जाग्रत हो रहा है, इस बात में उसे विश्वास रखना चाहिये !